कैसा लगता है जब अंतःकरण में
अनन्तता का अहसास होता है ?
आँखों से जब वक़्त की चादर है हटती
तब क्या सच में एक क्षण में ही सब कुछ व्याप्त होता है ?
सुना है कि यह जीवन नहीं है एक सोच से ज़्यादा
वास्तविकता है इसकी मेरे विश्वास पर क़ायम–
होता मुझसे यह शुरू और मुझमें ही ख़त्म ।
जो मैं सोचूँ और करूँ–वह है आज मेरा
जो मैं चाहूँ, वह मेरे सपनों का बसेरा, मुस्तकबिल मेरा
और जो यादों की गठरी मैं पीछे छोड़ूँ, वही है माज़ी मेरा ।
है समय क्या ? बस अनन्त पलों की शृंखला ।
एक ‘मैं’ के पर्दे के पीछे ये पल
अनन्त अहसासों को अपने में छिपाए हैं ।
एक ‘मैं’ के ख़याल के पीछे ये पल
करोड़ों बंधनों का जाल बुनते चले आए हैं ।
आज तक एक सत की आकांक्षा में
अनन्त असत मुझे बांधते आए हैं ।
क्या है कहीं निजात इस समय के जाल से नेहान ?
क्या है कहीं निर्वाण नेहान ? क्या है कहीं निर्वाण ?