आदमी को हैवान से इंसान बनाना है मुश्किल
न जाने कितने मसीहा आए और ख़ाली हाथ चले गए ।
चाहते थे मिटाना सारे बंधन, सारी सरहदें
पर अपने पीछे एक अमिट लकीर छोड़ गए ।
अब तो यही है दुआ कि या रब जब मुझ में उतरना
छीन लेना यह वाणी, मुझे मौन कर देना ।
है शब्दों का जाल सारा,
यह संसार है शब्द-जाल का भवसागर
जो बोलूँ एक शब्द और तुझ पर मैं
मुझे इस शरीर से ही रुख़सत कर देना ।
पर इतना रहम करना कि मेरा शुक्रिया
मेरे रहनुमाओं को दे देना ।
गर वे भी चले जाते दुनिया से बिन बोले
तो तुझसे मेरा सामना क्योंकर होता ?
न तू मिलता न यह दुआ दिल में उठती ।
बसा रहता हर जगह अँधेरा,
ज्ञान का सूरज न उगता ।
शब्द उनके अगर मुझ को छूते
तो क्या आज मैं यहाँ होती ?
अब क्या माँगू मैं तुझसे और
इस जीवन की अब तेरे हाथ में है डोर
जो तेरी मर्ज़ी हो वही करना ।