कई दिनों से मन में
एक कविता अधूरी-सी थी
मौक़ा-ए-दीदार न था
पर तमन्ना-ए-इज़हार पूरी थी
आज अब वीरानी में
दिल की गहराई से सदा आई है
बोलती है कि कई मुद्दत पहले
मैं तेरी रुह से जन्मी थी
तेरे दिल में उठी आहट
मेरे ही कदमों की थी
जब दी थी मैंने दस्तक बाब-ए-दिल पर
तो तूने धुन तो मेरी सुनी थी
पर घड़ी दो घड़ी बैठकर
मुझसे मिलने की फ़ुरसत न थी
लो आज तो मैं आ ही गई
इस तन्हाई में तुझसे गुफ़्तगू करने
शब्दों को तेरे अपनी धुन में पिरोकर
यहाँ इस काग़ज़ पर पूरी होना
Leave a Reply