ऐ कारवान-ए-ज़िन्दगी

निकल जाते हैं तेज़ी से कारवाँ ज़िन्दगी के

और पीछे उड़ती धूल मेरे लिए छोड़ जाते हैं ।

 

कभी कुछ लोग हाथ खींचके मेरा

कर लेते हैं सवार अपने कारवाँ में दो पल को

फिर कुछ दूरी में धक्का देके मुझको

वे अपने रास्ते चले जाते हैं ।

 

निकल जाते हैं तेज़ी से कारवाँ ज़िन्दगी के

और पीछे उड़ती धूल मेरे लिए छोड़ जाते हैं ।

 

अब तो है तुझसे यही गुज़ारिश कि ऐ कारवान-ए-ज़िन्दगी–

तू बख़्श दे इस नाचीज़ को, इसे पड़े रहने दे यहाँ गुमनाम ।

तेरे सपने तेरी आरज़ुओं से अब इसे न कोई वास्ता न कोई काम ।

तू मिलने दे इसे खाक में, बढ़ जा आगे बेपरवाह ।

तुझ पर सवार होने वाले तो आगे और भी मिल जाएँगे ।

 

क्या पता तू जब आएगा वापस यहाँ लौटके

शायद यहाँ का मंज़र ही बदला हुआ पाए ?

कई सफ़र ज़िन्दगी के

पैरों से तय नहीं किए जाते ।

 

ऐ कारवान-ए-ज़िन्दगी, तू बख़्श दे इस नाचीज़ को,

तुझ पर सवार होने वाले तो आगे और भी मिल जाएँगे ।

 

 

 

 

4 thoughts on “ऐ कारवान-ए-ज़िन्दगी”

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