वे सत्य से भागते हैं
और मैं उसे ढूँढ़ती हूँ
पर है सत्य क्या —
क्या यह मैं जानती हूँ ?
सत्य तो है वही जो —
विश्वास से बढ़कर,
आस्था से आगे चलके
अनुभव की कसौटी पर उतरे ।
पर हमारे सत्य तो बस
विश्वास से जन्मते हैं,
आस्था के निर्जीव पुतले ये
हमारी ऊर्जा पर जीते हैं ।
और बन जाते हैं बोझ हम पर
जैसे हों लोहे की बेड़ियाँ
कि इनको ढोते-ढोते
गुज़र जाती हैं कितनी सदियाँ ।
फिर समय बदलता है,
और बदलते समय के साथ,
सत्य भी बदल जाते हैं ।
पैर फिर भी रखते हैं हम बंद बस
बेड़ियाँ बदल लेते हैं ।
बताओ इन खोखले सत्यों में
अनुभव की आत्मा कहाँ है ?
बताओ इन खोखले सत्यों में
अनंत ऊर्जा का स्त्रोत कहाँ है ?
बताओ इन खोखले सत्यों में
शाश्वतता का सुर कहाँ है ?
अब असली सत्य की आस में
यह आत्मा तड़प रही है
पैरों की बेड़ियों की जकड़न
अब इसे अखर रही है…
मैं सामना करना चाहती हूँ सत्य का
पर असली सत्य क्या है —
क्या यह मैं जानती हूँ ?
क्या यह मुझे पता है ?
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