एक बेरहम से मोहब्बत

लोग सोचते हैं क्या, इसकी हमें ख़बर कहाँ,

आजकल तो महबूब के ख़यालों का भी पता नहीं चलता ।

फिर रहे हैं हम जैसे आशिक़ और भी उनकी गलियों में पर

हमसे ज़्यादा बदनसीब यहाँ कोई और नहीं दिखाई पड़ता ।

 

अब तो लगता है कि मौत आ जाएगी एक दिन

पर उनका पैग़ाम न कभी आया है न कभी आएगा

हम मर भी गए अगर तो उनको अफ़सोस कैसा–

उनसे मोहब्बत करने वाला तो उन्हें कोई और मिल जाएगा ।

 

कभी सोचते हैं कि यह जान ख़ुद ही ले लें हम,

यूँ तन्हा ज़िन्दगी से उलझने से सुकून नहीं आएगा,

पर फिर इस डर से रुक जाते हैं यह क़दम

कि महबूब की महफ़िल में हमें कायर क़रार दिया जाएगा ।

 

पर कौन है यहाँ जो इस दर्द-ए-दिल की करे दवा,

अब तो उनकी दुआ से भी कुछ हासिल न हो पाएगा ।

जब घायल हुए थे हम तीर-ए-इश्क़ से तब हमें भी क्या ख़बर थी —

कि यह घाव एक दिन जानलेवा साबित हो जाएगा ।

 

अब तो बस खड़े हैं फ़लक के साए में हाथ फैलाए इस उम्मीद में हम,

कि शायद बेरहमों से मोहब्बत करने वालों पर ख़ुदा ही रहम फ़रमाएगा ।

 

3 thoughts on “एक बेरहम से मोहब्बत”

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