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अंदर और बाहर

है दुनिया एक बाहर,

और एक है मेरे अंदर,

दोनों के बीच फँसी मेरी हस्ती,

इस छोर से उस छोर भागती है ।

 

है बाहर ऊँचाइयाँ अनन्त इतनी–

कि हर मंज़िल पहुँचने पर पड़ाव बन जाती है ।

और है अंदर एक गहराई असीम इतनी–

कि आत्मा कहीं ठहराव नहीं पाती है ।

 

अब तक चल चुकी हूँ मैं,

थोड़ा अंदर और थोड़ा बाहर ।

जैसे इस संपूर्ण सृष्टि की एक श्वास हूँ

जो अंदर से बाहर और बाहर से अंदर चल रही है ।

 

अब मन करता है ठहर जाऊँ एक जगह पर

तय कर लूँ एक राह–या तो अंदर या बाहर ।

 

पर अब बाहर चल-चलके थक गई हूँ मैं

और अंदर जाने कि हिम्मत जुटा नहीं पाती ।

 

है दुनिया एक बाहर,

और एक है मेरे अंदर,

दोनों के बीच फँसी मेरी हस्ती,

इस छोर से उस छोर भागती है ।

 

6 thoughts on “अंदर और बाहर”

  1. आज के दौर में हर किसी के जीवन में शायद बाहर और भीतर का यही द्वंद चल रहा है। बहुत सुंदर और प्रासंगिक कविता।

    मेरे blog पर आपके सुझावों का स्वागत है।

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