है दुनिया एक बाहर,
और एक है मेरे अंदर,
दोनों के बीच फँसी मेरी हस्ती,
इस छोर से उस छोर भागती है ।
है बाहर ऊँचाइयाँ अनन्त इतनी–
कि हर मंज़िल पहुँचने पर पड़ाव बन जाती है ।
और है अंदर एक गहराई असीम इतनी–
कि आत्मा कहीं ठहराव नहीं पाती है ।
अब तक चल चुकी हूँ मैं,
थोड़ा अंदर और थोड़ा बाहर ।
जैसे इस संपूर्ण सृष्टि की एक श्वास हूँ
जो अंदर से बाहर और बाहर से अंदर चल रही है ।
अब मन करता है ठहर जाऊँ एक जगह पर
तय कर लूँ एक राह–या तो अंदर या बाहर ।
पर अब बाहर चल-चलके थक गई हूँ मैं
और अंदर जाने कि हिम्मत जुटा नहीं पाती ।
है दुनिया एक बाहर,
और एक है मेरे अंदर,
दोनों के बीच फँसी मेरी हस्ती,
इस छोर से उस छोर भागती है ।
Bahut vadia
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Shukriya!
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आज के दौर में हर किसी के जीवन में शायद बाहर और भीतर का यही द्वंद चल रहा है। बहुत सुंदर और प्रासंगिक कविता।
मेरे blog पर आपके सुझावों का स्वागत है।
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शुक्रिया !
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Gazab 👏
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Deep thoughts!
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