सोचा था हमने कि दिल यह अब
इश्क़ करने के क़ाबिल न रहा ।
बहार-ए-ज़िन्दगी गुज़र गई कब की,
और अब ख़िज़ा का आलम शुरू हुआ ।
पर आजकल जुनून-ए-इश्क़ में
यूँ मदहोश रहने लगा है दिल कि
हमको भी पता चल ही गया कि
क्यों कहा करते थे हमें पीर-ओ-मुर्शिद…
कि ख़ुदा के बंदों के हाथों में
जीना, मरना और इश्क़ करना कब था ?
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