जा रही हूँ अब दर से तेरे, बस यही है इल्तिजा--मुझे अब जाने दो, मत रोको ।
Month: January 2018
श्रीलाल शुक्ल जी की राग दरबारी
राग दरबारी सिर्फ़ एक उपन्यास नहीं बल्कि एक दर्पण है जिसमें तत्कालीन भारत और उसमें हो रहे राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक पतन का चित्र उभरकर हमारे सामने आता है । १९६० के दशक का भारत, उसकी चुनौतियाँ, उन चुनौतियों से निपटने के लिए एक तरफ़ तो कुछ कामयाब होतीं और कई नाकाम होतीं सरकारी योजनाएँ… Continue reading श्रीलाल शुक्ल जी की राग दरबारी
क्या
क्या आप जानते हैं मुझे मैं ख़ुद से बेख़बर हूँ जो ?
आस थोड़ी बाक़ी है
ज़रूर दिल में मेरे अभी भी आस थोड़ी बाक़ी है, तभी तो इस जिस्म में अभी तक यह साँस बाक़ी है...
डर लगता है
तसव्वुर कहीं हक़ीक़त न बन जाए, अब इस ख़याल से ही डर लगता है...
मंज़िल से पड़ाव तक
देखिए, यह ज़माना भी देखके हँसता है हमारी हालत, कि पहले हम मंज़िल थे आपकी और अब एक पड़ाव बनकर रह गए ।
अश्क और अशआर
आज अश्कों की रफ़्तार से अशआर बह रहे हैं, देखो तमाम दर्द-ए-दिल काग़ज़ पर उतरा जा रहा है...
यह इश्क़-विश्क़ कुछ नहीं
जो ख़ुमारी में काटते हैं दिन अपने और रातों को सो न पाते हैं, जाके कह दो उनसे कि यह इश्क़-विश्क़ कुछ नहीं, है बस फ़ितूर-ए-ज़हन यह, न कि मंज़ूर-ए-ख़ुदा है ।
है यह रात पुकारती
भले ही
भले ही टूट चुका है हज़ार बार यह दिल, पर दर्द तो अभी भी उतना ही होता है ।