है हक़ीक़त वह बला जिससे पीछा छुड़ाना है मुश्किल
न जाने कितने ख़्वाब देखने वाले आए
और ख़यालों की दुनिया बुनते रह गए
न जाने कितने सुख़नवर आए
और अलफ़ाज़ों के जाल में ही बँधे रह गए
न जाने कितने अफ़सानानिगार आए
और हक़ीक़त से भागते रह गए
न जाने कितने इश्क़ करने वाले आए
और मोहब्बत में तड़पते रह गए
न जाने कितने ख़ुदा को चाहने वाले आए
और ख़ुदा के वजूत को ही ढूँढ़ते ही रह गए…
क्या है हक़ीक़त यही कि है बेरंग यह दुनिया ?
क्या है हक़ीक़त यही कि है बेजस्बात यह इनसान ?
क्या है हक़ीक़त यही कि है नहीं मोहब्बत का नाम-ओ-निशान कहीं ?
क्या है हक़ीक़त यही कि है कहीं नहीं ख़ुदा ?
क्या है मेरे अहसाह जैसे रेगिस्तान में सराब ?
क्या है मेरा ईमान बस एक पानी का बुलबुला ?
या है यह बला-ए-हक़ीक़त एक बदसूरत ख़्वाब हमारा,
जिसको हमने साथ मिलकर अपने आप बनाया है ?
है हक़ीक़त वह बला जिससे पीछा छुड़ाना है मुश्किल
न जाने कितने मुझ जैसे ख़्यालों में जीने वाले आए
और इस ज़ालिम के शिकार हो गए ।
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