अब दुनिया हमें पागल भी कहे तो अफ़सोस कैसा
किसी के इश्क़ में फ़ना हो जाना क्या गुनाह है ?
गुनहगार तो वे हैं जो ग़म-ए-आशिक़ी से वाक़िफ़ हैं फिर भी
इस आशिक़ का दिल तोड़ने पर आमदा हैं ।
जब आतिश-ए-इश्क़ में यह रूह ही हमारी
दहक-दहककर ख़ाक हो जानी है एक दिन
तो अब जहन्नुम का डर किसको है
जहन्नुम तो महबूब के क़दमों में ही लिखा है ।
इस बात पर अब रंजिश कैसी ?
अपने हाल-ए-दिल पर अब अफ़सोस कैसा ?
क्या तारीख़-ए-मोहब्बत में कभी
किसी माशूक़ ने अपने आशिक़ पर रहम किया है ?
है इश्क़ वह शमा नेहान जिसमें
हम जैसे परवानों का जलकर ख़ाक हो जाना ही लिखा है ।
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