है यह रात पुकारती
आग़ोश में अपने
देखो घर लौटते पंछी भी
चहचहा रहे हैं ।
है वक़्त यह ऐसा
कि दिन के कामों थके
ढूँढ़ते रात राहत की
सब घर वापस जा रहे हैं ।
शाम की चंद घड़ियों को
उम्मीद की डोर में बाँधे
कुछ खिलखिलाते, तो कुछ गुनगुनाते
देखो, सब चले जा रहे हैं ।
यह रात अँधेरी लाएगी क्या ?
कुछ देगी या कुछ ले जाएगी क्या ?
इस सब से बेख़बर, उनके तेज़ क़दम
बेफ़िकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं ।
है लौटना मुझे भी
है रात पुकारती मुझे भी
पर न जाने मेरे ये क़दम
क्यों लड़खड़ा रहे हैं ?
क्या मेरे इंतज़ार में भी
किसी के व्याकुल नैन
मेरी राह की तरफ़
बार-बार जा रहे हैं ?
है यह रात पुकारती
आग़ोश में अपने
पर कुछ बेघर पंछी
घबरा रहे हैं ।