राग दरबारी सिर्फ़ एक उपन्यास नहीं बल्कि एक दर्पण है जिसमें तत्कालीन भारत और उसमें हो रहे राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक पतन का चित्र उभरकर हमारे सामने आता है । १९६० के दशक का भारत, उसकी चुनौतियाँ, उन चुनौतियों से निपटने के लिए एक तरफ़ तो कुछ कामयाब होतीं और कई नाकाम होतीं सरकारी योजनाएँ वहीं दूसरी तरफ़ आम लोगों की सुप्रसिद्ध जुगाड़ू सोच से निकलवाले तोड़ और इन तोड़ों से भारतीय बुद्धिजीवियों को होनेवाली नैतिक दुविधाएँ–इस उपन्यास को पढ़कर ऐसा लगता है कि उपन्यासकार ने मानो एक अनुभवी चिकित्सक की भाँति भारत की नब्ज़ पर हाथ रखा हो, और सारी परेशानियाँ और मुश्किलों को एक बार में ही पहचान लिया हो । चाहे वह चालान के आड़ चलने वाला जुआँ हो, कॉलेज या पंचायत की राजनीति हो या बदलते राजनीतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य की वजह से ग्रामीण इलाक़ों में आ रहे बदलाव हों, इस उपन्यास में भारत और भारतीय लोगों से जुड़े कई गहरे वक्तव्य हैं जो कई भारतीय लोगों को भी अपनी अनुकूलता और सटीकता से चौंका देते हैं । पर इस उपन्यास की सबसे ख़ास बात यह है कि उपन्यासकार न तो लोगों को कटघरे में बंद करके कोई भाषण सुना रहे हैं, न ही कोई दुःख या खिन्नता प्रकट कर रहे हैं । वे केवल हँस रहे हैं, जैसे हम कई बार ग़लती करने पर अपने ऊपर हँसते हैं और वे हमें भी हँसाने की ही चेष्टा कर रहे हैं । इस उपन्यास की एक और ख़ास बात इसकी भाषा है— इसमें मुहावरों की बहुलता है और कई ऐसे शब्द, प्रयोग और कहावतें हैं जो अब शायद एक शुद्ध हिन्दीभाषी समाज में ही सुनने को मिलेंगी । इसलिए जो लोग अपनी हिन्दी भाषा को और ज़ोरदार और मज़ेदार बनाना चाहते हैं, उनके लिए यह उपन्यास काफ़ी उपयोगी साबित होगा । साथ ही साथ उन्हें भारत की संस्कृति और भारतीय विचारशैली के बारे में अनेक नई चीज़ें सीखने को मिलेंगी ।
