कहते हैं सब मुझे बेहिस-ओ-बेरहम
मग़रूर हूँ मैं यह है उनका वहम
करूँ मै वफ़ा हर आशिक़ से अगर
तो गिर जाऊँ उसकी नज़रों में यह कुफ़्र कर
कि है अगर वाहिद वह रहीम-ओ-करीम
कि है जिसके नूर से रौशन यह ज़मीन
कि हैं जिसकी हरकत से सभी साँसें बँधीं
कि है जिसकी ज़हानत से यह तमाम ख़ुशरुई
और है जिसकी बरकत से मोहब्बत-ए-जहान
है जिसकी कशिश से गरदिश में आसमान
है जिसने इस क़ायतान को आफ़रीदा किया
जो इसने पैदा किया उसे खाक भी किया
छोड़कर अगर मैं उस ख़ुदा की पनाह
हर अना से मुतासिर हो गई तो फिर
हो जाएगी खड़ी एक दुनिया-ए-फ़रेब
हो जाएँगे मैं और मेरे आशिक़ उसमें क़ैद
फिर देखेंगे उसमें हम क़िस्मत का खेल
होंगी दो ख़ुशियाँ पर रंजिशों का ढेर
जो भी बनाएँगे वह एक दिन खाक में मिल जाएगा
जिस से भी मोहब्बत करेंगे वह एक दिन मिट जाएगा
और यह जुर्म-ए-कुफ़्र मुझे आख़िर में दोज़ख ही दिलाएगा
हैं फिरते जो बदहाल इस गली में मेरे आशिक़
होते हैं वे वाकिफ़ राज़-ए-ज़िन्दगी से
कम होती है अना, ख़ुदगर्ज़ी इधर
सिर्फ़ इश्क़ की गली नहीं, है यह रूह का सफ़र
कहाँ है फिर क़ाबा-ओ-दैर में यह बात
कि हो जाए घुसते ही बंदा नेक-ओ-पाक
होता है इश्क़ की गली में ख़ुदा से सामना
मिलती है यहाँ इस खाक की मूरत से निजात
हाँ, हूँ मैं बेरहम पर इस बेरहमी में भी
गर ग़ौर करो तो मेरा प्यार ही छुपा है ।
जो भी बनाएँगे वह एक दिन खाक में मिल जाएगा
जिस से भी मोहब्बत करेंगे वह एक दिन मिट जाएगा
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अहा
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