कहते हैं वो कि अब न रखेंगे हमसे कोइ राब्ता
पर अगर कहने पे मोहब्बत होती तो फिर क्या बात थी
हज़ार ग़म-ए-दिल पाकर भी यह दिल्लगी नहीं छूटती
पर अगर बोलने पे यह दिल चलता तो फिर क्या बात थी
लगता है कि अब न रही कोई ख़ुशी जीने में कहीं
पर अगर सोचने पे यह साँसें चलतीं तो फिर क्या बात थी