अगर न हो मोहब्बत आपकी रज़ा-ए-ख़ुदा में शामिल तो क्या कीजिए —
हाथ पे हाथ धरे क्यों बैठे हैं ?
और कुछ नहीं तो कम-अज़-कम शेर कहा कीजिए !
वह मोहब्बत भी मोहब्बत क्या जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा न बदल सके
अगर नहीं कर सकते बेइंतहाँ मोहब्बत तो–
मोहब्बत ही न किया कीजिए ।
अगर न हो मोहब्बत आपकी रज़ा-ए-ख़ुदा में शामिल तो क्या कीजिए —
मोहब्बत में जी नहीं सकते तो फिर
मोहब्बत में मर जाने की ही दुआ कीजिए ।
bahut sundar
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