इंतज़ार यह कैसा है जो दिन छिपते ही दिल-ओ-दिमाग़ पर छा जाता है
मायूसी यह कैसी है जो शाम ढलते ही हर जा सतह-ए-गर्द सी बैठ जाती है
है क्या अभी भी जो पाया नहीं पर पाने की आस बाक़ी है
है कौन-सा वह ख़्वाब जिसे अब भी जीने की चाह बाक़ी है
सोचते हैं फिर कभी किसी और ज़माने में जी लेंगे हम
पर इस दिल का क्या करें जिसे अब भी ख़ुशी की प्यास बाक़ी है