लगता नहीं ग़म से डर
डर इस बात से लगता है
कहीं खा-खाकर ठोकरें यह दिल
पत्थर का ही न बन जाए
देखो इस चमन में यारों
हैं गुल भी कई बुलबुल भी कई
पर कशिश अब इश्क़ में नहीं इतनी
कि वस्ल-ए-गुम-ओ-बुलबुल हो पाए
आज गोश-ए-गुल
नाला-ए-बुलबुल के लिए तरस गए
आज शमा-ए-महफ़िल
परवानों के बिना ही जलकर बुझ गए
देखो हो गई है सूनी अब यह महफ़िल मेरे यार की
है वक़्त का यह फेर कैसा
कि किसी को वक़्त ही नहीं
जाकर कूचा-ए-यार में आँसू बहाए
लगता नहीं ग़म से डर
डर इस बात से लगता है
कहीं खा-खाकर ठोकरें यह दिल
पत्थर का ही न बन जाए
बहुत सही लिखा।
सहते सहते दर्द,
दर्द संग हमने जीना सीख लिया,
हाँ
अब दिखते ना आँसू हमने
आँसू पीना सिख लिया।
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वाह ! क्या बात है !
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धन्यवाद आपका।
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